गुस्ताखी माफ़- बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच भगत की भक्ति में ही सार बचा है..

gustakhi 26 sep

बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच भगत की भक्ति में ही सार बचा है..

राजनीति में कोई किसी नेता का लंबे समय दुश्मन नहीं रहता और लंबे समय दोस्त भी नहीं रहता। भाजपा में यह परंपराएं अब पहले से ज्यादा बदलने लगी हैं। रायता फैलने की प्रवृत्ति इतनी ज्यादा हो गई है नेता समय-समय पर रायता फैलाने और समेटने में लगे रहते हैं। उदाहरण माना जाए तो पिछले सत्रह सालों में भाजपा में परिवेश के साथ जो मूल्य बदलते गए, उन्होंने एक साथ खड़े होने वाले कई नेताओं को अलग-अलग जाजम पर पहुंचा दिया। किसी जमाने में कैलाश विजयवर्गीय और लक्ष्मणसिंह गौड़ को उमा भारती अपने राम-लक्ष्मण मानती थीं। समय के साथ राम-लक्ष्मण भी अलग-अलग गोलबंदी में शामिल हो गए। जब कैलाश विजयवर्गीय ने क्षेत्र क्रमांक चार को छोड़ा था, उस वक्त लक्ष्मणसिंह गौड़ को विधायक बनाने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। बाद में रिश्तों की बुनियाद ऐसी बिगड़ी कि मंत्री बनाने को लेकर भी खींचतान बनी रही। फिर लक्ष्मणसिंह गौड़ के सिपहसालार रहे कैलाश शर्मा और शंकर यादव भी गौड़ परिवार से खींचतान के चलते मुक्त हो गए, जो आज तक जमीन तलाश रहे हैं। इधर, उषा दीदी का तो गजब मामला रहा है।

वे जहां से लड़ीं, वहां अपने ही सेनापति को घर छोड़ आईं। क्षेत्र क्रमांक एक में उनके पहले चुनाव के सूत्रधार मदनलाल फौजदार थे, जो चुनाव जीतने के बाद फौज से बाहर हो गए। फिर यह परंपरा उन्होंने क्षेत्र क्रमांक तीन में भी जारी रखी। अब वे महू में इस बार अपने कट्टर समर्थकों को दरकिनार कर चुकी हैं। हालांकि यह भी माना जा रहा है एक बार में एक ही विधानसभा से चुनाव लड़ती हैं। अब कुछ रिश्ते और भी हैं, जो खिंचते चले गए, जिसमें भंवरसिंह शेखावत और कल्याण देवांग भी शामिल हैं। किसी जमाने में देवांग, शेखावतजी की खींची गई लक्ष्मण रेखा पार नहीं करते थे, परंतु अब वे उनके खास साथी सुक्का भाटिया के साथ लक्ष्मण रेखा लेकर ही घूम रहे हैं। एक और जोड़ी है, जो कैलाश विजयवर्गीय और दादा दयालू की है। दादा और भिया के बारे में दो जिस्म मगर एक जान कहा जाता रहा। धीरे-धीरे दादा के समर्थकों को लग रहा है कि भिया के साथ उनका जीवन हवन हो रहा है। हालांकि दादा के समर्पण की मिसाल और भिया की दोस्ती का मामला आंतरिक रूप से आज भी पहले जैसा ही है।

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एक जोड़ी जरूर राजनीति में बिरली मानी जाती है और वह है पूर्व विधायक गोपीकृष्ण नेमा और बालकृष्ण अरोरा की, यानी लालू-गोपी की। वह चुनाव से पहले, चुनाव के बाद भी बनी हुई है। दोनों की लक्ष्मण रेखाएं तय हैं और दोनों अपने दायरे में बंधे हुए हैं। इधर तुलसी पेलवान भाजपा की राजनीति में नए-नए आए हैं। जोड़ी बनाने की कोशिश में भले ही लगे हों, पर इस बार सांवेर में उनकी जड़ों में राजेश सोनकर और सावन सोनकर दही डालने के लिए बाल्टी लेकर घूम रहे हैं। उनके समर्थक कह रहे हैं कि गाजे-बाजे के साथ लाए थे और गाजे-बाजे के साथ विदा भी कर देंगे। ये भाजपा है, इसे पहचानने में दो पीढ़ी लगेगी। इस मामले में गौरव रणदिवे भी अभी तक ऐसे हैं कि किसी के साथ जोड़ी नहीं बना पाए।

वैसे भी कहा जाता है कि कांग्रेसी हो या पूर्व कांग्रेसी, जोड़ी में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि जीवन भर जोड़ने में ही उनका चला जाता है। जोड़-गुणें से बेहतर वह जानते हैं कि यह रिश्ते लंबे समय नहीं रह पाएंगे। इससे तो ज्यादा अच्छा है कि भगत की भक्ति करो और प्रतिफल पाओ। भाजपा में जो मिल रहा है वह भक्ति के कारण ही मिल रहा है। रायशुमारी हो या शक्ति इससे कुछ नहीं मिलता। अंतत: राम-नाम ही सत्य है और सत्य बोलो गत्य है।
-9826667063

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