फ़िल्म चक्कर गिन्नी

किसी भी फ़िल्म की निर्मिति के पहले निर्माता लेखक से कहानी सुनने के बाद कलाकारों का चयन करता है। अभिनेता और अभिनेत्री के चयन के साथ सहयोगी कलाकारों का चयन होता है। निर्देशक का चयन होता है। संगीतकार, गायक और संवाद लेखक का चयन होता है।
गीतकार परिस्थिति  के आधार पर गीत लखता है। इतना सब होने के बाद फ़िल्म की निर्मिति हो भी जाए।लेकिन यदि दर्शकों को फ़िल्म पसंद नहीं आए तो फ़िल्म पीट जाती है,मतलब फ्लॉप हो जाती है।
हाल के दिनों में ऐसा ही हुआ है।
फ़िल्म की पटकथा भी अभिनेता ने ही लिखी। अभिनय भी स्वयं ने किया। संवाद भी स्वयं ने ही लिखे बस एक चूक हो गई। अचानक लोकेशन चेंज करने के चक्कर फ़िल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गई।
लोकेशन तो चेंज कर दी लेकिन फ़िल्म को सुपरडुपर हिट करने के चक्कर कैमेरे का एंगल चेंज नहीं किया यह निर्णय ही उल्टा पड़ गया।
चूक पर चूक होते गई। फ़िल्म में खलनायक का रोल भी अपने सहयोगियों करवाया। सहयोगियों ने पक्ष में संवाद बोले। सहयोगी तादाद में थे,इसकारण सहयोगियों ने संवादों को नारे में बदल दिया।
प्राय: देशी फिल्मों में फ़िल्म का पटाक्षेप अभिनेता और खलयायक की बनावटी फाइटिंग के बाद ही होता है। इस बनावटी फाइटिंग में पहले तो खलनायक अभिनेता को मरणासन्न स्थिति में पहुँचाने तक पीटता है,बाद में अभिनेता खलनायक को सिर्फ मारता ही नहीं मार डालता है। देशी फिल्मों में इस तरह के बनावटी दृश्य दिखाने की एक परिपाटी ही बन गई है।
उक्त फ़िल्म में अभिनेता को जब पता चला कि खलनायक का रोल भी अपने ही सहयोगी कर रहें हैं।
तब अभिनेता ने फ़िल्म को फ्लॉप करने का आरोप असली खलनायक पर लगाने की चेष्ठा की। इस चेष्ठा में भी चूक हो गई।
जिसे खलनायक घोषित करने की चेष्ठा की वह असली में हीरो बन गया। चन्नी तो सोने की गिन्नी बन गया। और अभिनेता स्वयं की चक्कर गिन्नी हो गई।
( चेष्ठा शब्द का मराठी भाषा में अर्थ होता है मजाक करना)
फ़िल्म के फ्लॉप होने के बाद फ़िल्म समीक्षक समीक्षा कर रहें हैं।
एक कॉमेडी फिल्म के समीक्षक ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि, संवाद सुनने या बोलने में भी चूक हो गई। इसकी जांच बहुत जरूरी है। जिंदा बाद कि जगह जिंदा भाग संवाद सुनाई दे रहा था। यह गलती संवाद लेखक की हो सकती है। जांच के बाद दूध और पानी अलग हो जाएगा। हो सकता है कि, अभिनेता या खलनायक को जांच के बाद शर्म से पानी पानी होना पड़े।
इस सिचुएशन पर यह गीत गाया जा सकता है,
जाते थे जापान, पहुँच गए चीन
यह गीत भी प्रासंगिक है लेकिन इसके लिए मजबूत शरीर नहीं साहस चाहिए। हमके माफी दई दो हमसे भूल हो गई।
और यह भी गीत मौजु है।
मुझको मोहन जी माफ़ करना
गलती म्हारे से हो गयी
कोई भी फ़िल्म तबतक हिट नहीं हो सकती है,जबतक आम दर्शक फ़िल्म की तारीफ ना करें।
फ़िल्म का विज्ञापन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
बिकाऊ दर्शक ज्यादा दिनों तक टिकाऊ नहीं होतें हैं।
वैसे भी फिल्में विज्ञापनों के आधार पर एक या दो बार ही चल जाती है। कहावत है न काठ की हंडी बार बार नहीं चढ़ सकती है।
शशिकांत गुप्ते

You might also like