जब न्याय होता दिखेगा तभी न्यायालयों पर आस्था बढ़ेगी…

कल एक बार फिर देश के उच्चतम न्यायालय ने सिद्ध कर दिया कि अभी भी इस देश के नागरिकों की जो न्याय व्यवस्था में आस्था है वह टूटी नहीं है। न्यायालय ने सबसे बड़े बैंक के खोखले तर्कों को उजागर कर दिया। खासकर ऐसे में ही लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद 30 जून का दिन अच्छा होता उसने एक बार फिर देश के चुनावी चंदे से सबद्ध विश्वसनीय कानून की तात्कालीक जरूरत को भी रेखांकित कर दिया है। जहां एक और देश में राजनीतिक महत्वकांक्षा सर्वोच्च होती जा रही है, ऐसे में जब कार्यपालिका और विधायिका पूरी तरह से दंडवत हो चुकी है। वहीं देश का चौथा स्तंभ अब ध्वस्त होता जा रहा है, ऐसे में अब केवल न्याय के मंदिर पर ही कुछ संभावनाएं आम आदमी देख रहा है। ऐसे में महादेवी वर्मा की कविता की यह लाइनें प्रासंगिक हो गई है जो आज के हालात पर सटिक बैठती है।
देखूं खिलती कलियां, या प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन-सुषमा या जर्जर जीवन देखूं,
देखूं हिम-हीरक हंसते, हिलते नीले कमलों पर,
या मुरझाई पलकों से झरते आंसू-कण देखें।
भावार्थ : प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता कह दे मां क्या अब देखूं, से अवतरित है, जिसमें कवयित्री ने प्रकृति के सौंदर्य की प्रशंसा की है और उसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा साथ ही देशवासियों की निर्धनता और पीड़ा से व्यथित होकर पूछा है कि वह किस के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त करें – प्राकृतिक सुंदरता के प्रति या देशवासियों की पीड़ा के प्रति।
प्रकृति को माता के रूप में संबोधित करते हुए कवयित्री कहती है कि हे मां तुम ही बताओ कि मैं किस ओर अपनी दृष्टि केन्द्रित करूं। एक ओर तो प्राकृतिक सुषमावाली कलियां है, जो अपने यौवनागमन पर पूर्ण विकास को प्राप्त करके खिलती दिखाई जा रही है। दूसरी ओर भूख-प्यास और विपत्ति के कारण मुरझाए हुए होठों वाले प्राणी दिखाई देते हैं। उच्चतम न्यायालय के फैसले ने निश्चित रूप से देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा और सम्मान दोनों बढ़ाया है, पर यह भी सवाल उठ रहा है कि पूरे देश में न्यायालयों की जड़ें कमजोर होने के साथ विश्वास के संकट से भी जूझ रही हैं और इसका मुख्य कारण यह भी है कि न्यायालय में चल रहे प्रकरणों पर फैसले नहीं हो पाना है। उच्चतम न्यायालय ने अपनी वही ताकत दिखाई जो संविधान में उसे दी गई है। तो क्या देशभर की अदालतों में संविधान की ताकत की पहचान नहीं है। खुद भोपाल के एक कार्यक्रम में उच्च न्यायालय के न्यायधीश बता चुके हैं कि 40 साल से ज्यादा समय से प्रकरणों के निपटारे नहीं हो पा रहे हैं। न्याय की पहली सीढ़ी पर ही सही समय पर सही न्याय मिले यह दिखना चाहिए। न्याय होना और न्याय होता दिखना दोनों ही अलग-अलग बाते हैं। जब न्याय होता हुआ दिखेगा तो न्यायालयों के प्रति विश्वास भी बढ़ेगा, क्योंकि आज भी देश का आम नागरिक आखिरी में देश के संविधान पर ही भरोसा कर सब कुछ लुट जाने के बाद न्याय मांगने न्यायालयों में पहुंचता है। दुर्भाग्य यह भी हो रहा है कि कार्यपालिका में बैठे अधिकारी अब अपने आप को न्याय व्यवस्था से ऊपर मानते हुए खुद ही फैसले कर रहे हैं, अब वह किसी का मकान तोड़ना हो या अतिक्रमण बताकर पूरे परिवार को बेघर करना हो। यह बता रहा है कि अब फैसले अदालतों में नहीं अदालतों के बाहर ही कराए जाने को लेकर नई परंपरा भी प्रारंभ हो गई है। इसके पीछे भी यह माना जाना चाहिए कि उच्च न्यायालयों में स्थापित होने वाले न्यायधीशों के चयन में राजनीतिक हस्तक्षेप अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। ऐसे में यह भी माना जाता है कि चंद स्थानों पर विश्वसनीयता सत्तासीनों के प्रति ज्यादा होती है, न्याय के प्रति कम। देशभर की अदालतों में उच्चतम न्यायालय के तेवर ऐसे ही रहे तो इस देश में एक नए युग का सूत्रपात होना तय है।

You might also like