भारतीय उप-महाद्वीप की सबसे सुरीली उपस्थिति का लोप
स्मृति शेष..
देश के लिए कल का दिन सबसे बेसुरा रहा। हम सबकी अपनी और बेहद आदरणीय पार्श्व गायिका लता मंगेशकर का निधन भारतीय जनमानस के लिए उन सबसे कष्टप्रद क्षणों में एक है, जिसकी कल्पना कोई शायद ही कभी करना चाहता था। भारतीय उप-महाद्वीप की सबसे सुरीली उपस्थिति का लोप, एक ऐसी कलात्मक विपन्नता है, जो इस शताब्दी में शायद ही पूरी हो सके।
लता मंगेशकर सिर्फ एक आवाज, एक किरदार, एक कलाकार का नाम नहीं है, बल्कि यह आजाद भारत की सांस्कृतिक विकास-यात्रा के समानांतर चलने वाला वह प्रतीक भी है, जिसके होने से संगीत और सिनेमा की दुनिया में तब उजाला फैलना शुरू हुआ, जब सन 1947 में फिल्म आपकी सेवा में उनकी आमद हुई थी। क्या संयोग है कि इस देश को आजाद हुए जितना समय बीता है, उतने ही लंबे कालखंड में लता दीनानाथ मंगेशकर की जीवंत आवाज की सुरीली यात्रा जारी रही है।
हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास पर निगाह डालते हुए कुछ ऐसे गाने याद आते हैं, जिनको आज दशकों बाद याद करते हुए आंखों में आंसू आते हैं। मदन मोहन के संगीत में बागी (1953) के लिए उनका गाया हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे, हेमंत कुमार की कंपोजीशन में दुर्गेशनंदिनी (1956) का कहां ले चले हो बता दो मुसाफिर, सितारों से आगे ये कैसा जहां है और रोशन की संगीतबद्ध ममता (1966) में रहें न रहें हम महका करेंगे तो आज भी जितने प्रासंगिक हुए जाते हैं, उनकी कालातीत अभिव्यक्ति प्रसन्न करने की जगह इस वक्त दुख दे रही है। यह हममें से किसी भी संगीतप्रेमी ने कभी न सोचा होगा कि एक ऐसा समय भी आएगा, जिसमें हम लता जी की अनुपस्थिति की चर्चा करेंगे, जबकि हम यह जानते हैं कि जीवन के साथ मृत्यु एक ऐसा सत्य है, जिसे गरिमा और आदर के साथ हर किसी को स्वीकारना ही पड़ता है। संयत रहते हुए और लता जी के विराट जीवन को संपूर्णता से देखने के बावजूद कबीर की यह सूक्ति झुठलाने का मन करता है- हम न मरब मरिहैं संसारा/ हमको मिला जियावनहारा!
लता जी की गायिकी और उनकी सहेजी हुई सांगीतिक थाती उसी जियावनहारा की तरह है, जो एक आम व्यक्ति को उसके सबसे नाजुक और तकलीफ भरे क्षणों में राहत के पल मुहैया कराती है। इस बात से कौन इत्तिफाक नहीं रखेगा कि उसके जीवन में लता मंगेशकर का गाया हुआ कोई न कोई ऐसा गीत जरूर रहा है, जिसने उसे प्रभावित किया, तकलीफ के मौकों पर संबल प्रदान किया या किसी आत्मीय और उल्लास वाले समय में उसके आनंद में वृद्धि की। लता मंगेशकर एक ऐसा करिश्मा रही हैं, जिनको भारतीय जनमानस ने बड़े स्तर पर जाति, पंथ, मजहब व सरोकारों से ऊपर उठकर सराहा और प्यार किया। एक पारंपरिक मराठी ब्राह्मण परिवार की बेटी की आवाज में खुदा की इबादत का सलाम बेकस पे करम कीजिए सरकारे-मदीना गाते हुए किसकी आंखें नहीं भीगी होंगी? मीराबाई की करुण पुकार का पद सखी री लाज बैरन भई हो या मराठी फिल्म अमर भूपाली की प्रार्थना घनश्याम सुंदरा श्रीधरा अरुणोदय झाला, लता जी हर जगह अप्रतिम थीं, उनका भाव अपूर्व था, आवाज अतुलनीय रही।
लता मंगेशकर की उपस्थिति का अवदान अब व्यापक अर्थों में शोध का भी विषय है। जैसे, उनके होने में दक्षिण एशियाई स्त्री की गरिमा और पहचान, उसकी उन्मुक्त आकांक्षा का स्वप्न और संघर्ष, पारंपरिक ढंग से जीवन जीते हुए अपनी कला में शिखर अर्जित करने का मुकाम, सभी कुछ प्रेरणा की तरह भविष्य में देखे-समझे जाएंगे। उन्होंने सिनेमा जैसे माध्यम में रहते हुए ढेरों मानक तय किए। जब आवाज की दुनिया को बहुत सम्मान नहीं दिया जाता था, उस दौर में भी उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि रेडियो पर फिल्मी गीतों को बजाने से पूर्व पार्श्व गायकों-गायिकाओं के नाम भी प्रसारित किए जाएं। खान मस्ताना जैसे गायक की आर्थिक दशा से विचलित होकर उन्होंने यह लड़ाई लड़ी कि गायकों को भी अन्य लोगों की तरह फिल्म और रेकॉर्ड कंपनियां उचित लाभांश (रॉयल्टी) प्रदान करें। इसके साथ उन्होंने यह भी अपनी जिद पर संभव किया कि सिनेमा में अश्लील और द्विअर्थी बोलों वाले गीतों को कभी नहीं गाएंगी।
उन्हीं के इसरार पर यह एक परिपाटी सी बनी कि लता जी की रिकॉर्डिंग के दौरान दिग्गज साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और शैलेंद्र जैसे गीतकार भी स्टूडियो में मौजूद रहते थे, ताकि किसी गीत को रिकॉर्ड करते समय लता जी को कोई परेशानी आड़े आती है, तो शब्द वहीं दुरुस्त किए जा सकें। फिल्मफेयर पुरस्कारों में उनके मना करने पर कि सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार में वह अपनी आवाज नहीं देंगी, क्योंकि यह सम्मान गायकी के लिए नहीं है, संगीतकार अपनी धुन बजा दें, फिल्मफेयर को पार्श्व गायन के लिए एक नई श्रेणी आरंभ करनी पड़ी, जिसका फायदा लता मंगेशकर को ही नहीं, बाद की पीढ़ी को भी मिला। ऐसी ढेरों मिसालें हैं, जिनसे लता मंगेशकर की जिजीविषा, उनकी सैद्धांतिकी और संघर्ष की आंच को कुंदन बनते देखा जा सकता है।
यह लता ही थीं, जिनके कारण तीन मिनट के गीतों में हम रागदारी की शुद्धता, मींड़ और गमक का असाधारण काम और शब्दों के बीच ध्वनित होने वाले अर्थों को उसकी शुद्ध साहित्यिक आभा के कारण सुन सकते हैं। पंडित कुमार गंधर्व ने उन पर एक लेख लिखा और यह स्थापित करने की पहल की कि लता का स्थानापन्न शास्त्रीय गायिकी में भी संभव नहीं। पंडित जसराज का यह कहना कि भला हुआ, लता फिल्म संगीत में हैं, नहीं तो हम लोगों का क्या होता, दरअसल ये अतिरंजित कथन नहीं हैं, बल्कि एक करिश्माई किरदार के प्रति वह आभार और कृतज्ञता ज्ञापन हैं, जो पिछली शताब्दी में इस सुरीली गंधर्व-सेविता को हासिल हुए हैं।
मेरा पक्का विश्वास है कि गंधर्व-सेविताएं मरती नहीं, बल्कि अपने लोक को छोड़कर दूसरे लोक को सुरीला करने जाती हैं। अब पृथ्वी पर मौजूद यह स्वर देवलोक चला गया है, जहां से ढेरों राग-रागिनियां अपनी सबसे उदात्त अभिव्यक्ति में सुर का एक प्रतिसंसार रच रही होंगी। हम यहां उनके न रहने पर उन्हीं की आवाज में तड़पते रह जाएंगे, जो आज से बरसों पहले उन्होंने गाकर अभिव्यक्त किया था- खुदा निगहबान हो तुम्हारा/ धड़कते दिल का पयाम ले लो/ तुम्हारी दुनिया से जा रहे हैं/ उठो हमारा सलाम ले लो!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)