आरक्षण : न नियत न नीति, गांधारी हो गए फैसले लेने वाले…
क ई पेंचों में उलझे पंचायत चुनाव से अंतत: सरकार को पीछे खसकना पड़ा। बहाना भले ही कोरोना का हो पर तथ्य बता रहे हैं कि जिन आधार पर सरकार चुनाव कराने के लिए आमादा थी वह उच्चतम न्यायालय के दरवाजे पर ही दम तोड़ रहे थे। दुर्भाग्य यह भी है कि प्रदेश में राज्य निर्वाचन आयोग के शिखर पद पर बैठे मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी की भूमिका धृतराष्ट्र के शासन में गांधारी की तरह ही रही। वह केवल आंख पर पट्टी बांधकर व्यक्तिगत वफादारी दिखाने में लगे रहे। 2004 से मध्यप्रदेश में पहले से ही उच्चतम न्यायालय के आदेश का उल्लंघन हो रहा है। उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की सीमा रेखा 50 प्रतिशत तय कर रखी है। इसके बाद भी 60 प्रतिशत तक आरक्षण दिया जा रहा है। अब रहा सवाल पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का तो इस ढोंग में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ढोंगियों की भूमिका निभा रही है। जो कानून लागू ही नहीं हुआ है उसे मानकर आरक्षण देने की बात की जा रही है। अब यदि कोरोना के कारण चुनाव स्थिगित करने थे तो फिर विधेयक वापस क्यों ले लिया? जबकि आरक्षण देने को लेकर पहले दिन से ही चुनाव कराए जाने को लेकर जारी किए गए आदेश में कई खामियां थी। यह कैसे संभव है कि 2014 के आरक्षण के आधार पर 2021 में चुनाव कराए जा सके, जबकि चुनाव प्रक्रिया में पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण को लेकर क्रम तय है। यानी पहले सामान्य पुरुष है तो अगली बार पिछड़ा वर्ग पुरुष होगी, फिर सामान्य महिला, फिर पिछड़ा वर्ग महिला होगी। 2014 के आरक्षण पर 2021 में चुनाव संभव ही नहीं है। वहीं सरकार की आरक्षण देने की नीति भी साफ नहीं है। पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के लिए तीन प्रक्रियाओं से पहले गुजरना होगा यानी सबसे पहले आयोग का गठन किया जाएगा, फिर उन्हें अधिकार दिए जाने के बाद पूरे प्रदेश में तय सीमा में सर्वे किया जाएगा। इसके बाद कितनी जाति और उनकी जनसंख्या किन-किन क्षेत्रों में मौजूद है? कौन सी जाति को कितना आरक्षण मिलना चाहिए, इसका प्रतिवेदन तैयार होगा, इसके बाद ही सरकार इसे लागू कर पाएगी। गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारें इस मामले में पहले ही मुंह की खा चुकी है। इसके बाद भी मध्यप्रदेश ने कोई सबक न सीखते हुए पूरी प्रक्रिया को ही संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया है। सरकार यदि ईमानदारी से पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देना चाहती है तो उसे ईमानदार प्रयास करने होंगे। साथ ही प्रदेश में पदस्थ रहे ऐसे अधिकारियों से भी मुक्त होना होगा जो अपने बेतुके फैसलों से सरकार के ही कामकाज पर सवाल खड़ा करवा रहे हैं और सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रदेश के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के पद पर ऐसे व्यक्ति को पदस्थ किया जाए जो एक संवैधानिक संस्था के सम्मान को बरकरार रखने में पहचाना जाए, न कि गांधारी के रूप में वह अपनी पहचान छोड़कर जाए। कांग्रेस की सरकार ने भी आरक्षण के ढोंग में कोई कमी नहीं रखी थी। और यही हाल रहा तो इसी आरक्षण की देहरी पर लाखों युवा सरकारी नौकरी के लिए अपनी उम्र खो चुके हैं तो दूसरी ओर कई पदोन्नतियां भी इसकी बलि चढ़ गई हैं, इसके बाद भी सरकारें सबक नहीं सीखतीं तो यह पिछड़ा वर्ग के साथ प्रदेश के लाखों लोगों के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा जो इस निर्णयों की सजा भोग रहे हैं।