अगड़े-पिछड़े की राजनीति लाखों रोजगार निगल गई…

अ गाड़ियों और पिछाड़ियों की राजनीति के चलते प्रदेश के लाखों युवाओं का भविष्य किस कदर चौपट हो रहा है, यह देखना है तो आज की राजनीति इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। मध्यप्रदेश में हो रहे पंचायत चुनाव पर कल उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई तल्ख टिप्पणी के बाद चुनाव होंगे या नहीं, इस पर बड़ा संशय पैदा हो गया है। पंचायत चुनाव में 26 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ा वर्ग को दिए जाने को लेकर सरकार वर्तमान में सभी जगहों पर इस कदर रेड कारपेट बिछा रही है कि कानून बनाने से पहले ही फैसले हो रहे हैं। वोटों की राजनीति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। देश में आरक्षण को लेकर पहले से ही एक नीति बनी हुई है, जिसके तहत अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था तय है, परन्तु पिछड़ा वर्ग को लेकर पिछले कुछ समय से चल रही राजनीति में पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। महाराष्ट्र में और गुजरात में 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ा वर्ग को दिए जाने के लिए ऐसी स्पर्धा चली कि गुजरात में तो पूरा मंत्रिमंडल ही नए सिरे से बनाकर पिछड़ा वर्ग के विधायकों को ही सारे पद दे दिए गए। उच्चतम न्यायालय पहले से ही आरक्षण को लेकर सीमा रेखा खींच चुका है। इसके बाद भी केवल वोटों की राजनीति ने सारी कानून व्यवस्था को धत्ता बताते हुए ऐसे फैसले लेना शुरू कर दिए हैं, जो कानून सम्मत तो है ही नहीं, बल्कि कानून भी नहीं बन पाया है। उच्चतम न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के पूर्व सबसे पहले सर्वे कराने के आदेश दिए हैं। कर्नाटक में यह गणना हो चुकी है, इसलिए वहां आरक्षण प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सरकार की पिछाड़ियों को आगे लाने की दोयम दर्जे की राजनीति के चलते 2018 से सरकारी नौकरियों पर भर्तियां नहीं हो पा रही है। परिणाम यह है कि लाखों युवा अब उम्रदराज होने जा रहे हैं, जो नौकरियों की आस में भटक रहे थे। ऐसा लगता है सरकारों को यह समझ में आ गया है कि अगला चुनाव विकास के नाम पर, राम मंदिर के नाम पर, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर जीतना शायद कठिन होगा और अगला चुनाव केवल पिछड़ा वर्ग के आधार पर ही जीता जा सकेगा। इसीलिए पिछड़ा वर्ग में भगवान बनाने से लेकर वह सब हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि देश में निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र संस्था के रूप में मान्यता मिली है और यहां शिखर पद पर बैठे अधिकारी पर यह भरोसा रखा जाता है कि वह ऐसे निर्णय नहीं लेगा, जो राजनीति से प्रेरित हो, परन्तु आश्चर्य की बात है कि मध्यप्रदेश में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी पद पर बैठे अधिकारी धृतराष्ट्र सरकार के गांधारी बनकर फैसले ले रहे हैं और ऐसे फैसले ही प्रदेश के युवाओं के भविष्य से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। कई पदोन्नतियां भी वर्षों से उलझी हुई है। कई युवा अब सरकारी नौकरियों के लिए अपात्र हो गए हैं, तो वहीं कई अधिकारी सरकार की इस नीति की बलि चढ़ गए हैं जो बिना पदोन्नति ही सेवानिवृत्त हो गए हैं। ऐसा लगता है सरकार अब अपने कार्यों से नहीं, पिछड़ों की राजनीति को ही अपना विकास मॉडल मान रही है। यहां लाखों पढ़े-लिखे बेरोजगार राजनीति के ऐसे शिकार हो रहे हैं कि वह दिन दूर नहीं, जब डिग्री के साथ बोर्ड पर भजिये की दुकानें चलाते हुए युवा दिखेंगे।

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