इंदौर। १९ वी सदी के बीच में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति ( एलेपैथी) ने भारत में पैर पसारने शुरू कर दिए थे। १९५२ में शहर में पहला अंग्रेजी चिकित्सलाय खोला गया । हांलाकि नई तकनीक होने की वजह से लोगों को इस पर भरोसा नहीं था। शहर के वैध और हकीम भी उस समय इसका कड़ा विरोध करते थे। महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) इस नई पद्धति के विरोध में तो नहीं थे लेकिन उनका विश्वास देसी ईलाज पर ही ज्यादा था। इसलिए कभी उन्होने इसकी सराहना नहीं हालाकि अंग्रेजों के अधीन होने की वजह से इसके बढ़ावे के लिए अनुदान भी जारी किए। १८५७ की क्रांति के दौरान इंदौर में भी विद्रोह शूरू हो चुका था। क्रांतिकारियों ने राजवाड़ा के गौपाल मंदिर के पास बने अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के अस्पताल को पूरी तरह खाक कर दिया था। हांलाकि बाद में १९६० और ६५ के बीच फिर दो नए चिकित्सालय शहर में खुल गए थे जिसमें एक रेसीडेंसी एरिया में सिथत था। रेसीडेंसी में स्थित अस्पताल को किंग एडवर्ड चिकित्सा समीति चलाती थी। इसी समीति ने १९७० में पहली बार चिकित्सा शिक्षा भी आरंभ की।इसी क्षैत्र में स्थापित इस स्कूल में सबसे पहले सिर्फ चार छात्रों ने प्रवेश लिया था। जिनहे १९८० में डाक्टर की उपाधि से नवाजा गया। यह स्कूल आगे चलकल महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज में परिवर्तित हो गया। अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति का शुरू में विरोध इसलिए भी था कि इसमें कई बार बेहोश कर इलाज किया जाता था। ग्रामीणों के साथ साथ शहर के लोग भी इसके आदि नहीं थे। यही वजह थी कि १८८६ में चिकित्सा शिक्षा हासिल करने वाले सिर्फ १३ छात्र ही थे। लेकिन धीरे धीरे इसकी तरफ रूझान बढ़ता गया। १९१० में जहां ७० छात्र इस चिकित्सा का ज्ञान ले रहे थे वही १९२० में १३९ और १९३० में २६० छात्रों ने इस स्कूल में प्रवेश लिया। १९३८ में नई दिल्ली में आयोजति एक कांफ्रेंस में यह निर्णय लिया गया कि मेडिकल स्कूलों का दर्जा बढ़ाकर अब मेडिकल कॉलेज कर दिया जाए। इस कॉलेज में स्नातक की पढ़़ाई का इंतजाम किया जाए। उसीसमय. इंदौर में किंग एडवर्ड मेडिकल स्कूल की समीति नेबैठक कर यह तय किया कि शहर में ५०० बिस्तरों वाला एक नया अस्पताल बनवाया जाए। महाराजा तुकोजीराव भी इस फैसले के हक में थे और उन्होने इस अस्पताल के बनवाने में सबसे ज्यादा रूचि ली। हालाकि दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत ने इस योजना को टलवा दिया। फिर अंत में इस अस्पताल का निर्माण १९५० में शुरू हुआ और पांच साल में ७२० बस्तिरों वाले भव्य महाराज यशवंतराव होलकर अस्पताल बनकर तैयार हो गया।
६६ लाख में बनकर तैयार हुआ था प्रदेश का पहला बड़़ा अस्पताल
अस्पताल बनाने का निश्चय महाराजा यशवंत राव होलकर ने 1937 में ही कर लिया था, लेकिन उस समय युद्ध की परिस्थितियां बनने से इस योजना पर काम नहीं कर सके। 1944 में फिर एक बार उन्होंने इसे मूर्त रूप देने प्रयास किया और समिति बना दी। चिकित्सालय निधि की स्थापना करके उसमें 30 लाख रुपए की रकम स्वीकृत की। पूरी योजना में 68 लाख रुपए साजसज्जा सहित भवन निर्माण पर खर्च होने थे। महाराजा की इच्छा के अनुसार 6 जून 1948 को इस अस्पताल का शिलान्यास केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने किया। 20 फरवरी 1950 से अस्पताल बनाने का काम प्रारंभ किया गया व 23 अक्टूबर 1956 को बनकर तैयार हुआ था। इसमें कुल 65 लाख 55 हजार रुपए का खर्च उस समय आया। वहीं अस्पताल में फर्नीचर व साजसज्जा के लिए 11 लाख रुपए स्वीकृत किए गए। तब इसे 720 बिस्तर की सुविधाओं के साथ तैयार किया गया। इसमें 220 मेडिकल, 220 सर्जिकल, 80 स्त्री रोग, 60 नेत्र रोग, 60 बच्चों के रोग व 20 अन्य रोगों के मरीजों के लिए इंतजाम थे। 60 प्राइवेट वार्ड की व्यवस्था भी की गई। साथ ही लिफ्ट, गैस पाइप, टेलीफोन, बिजलीघर व लांड्री की सुविधा भी शुरू की गई। उस समय बने पांच ऑपरेशन थिएटर में से तीन वातानुकूलित थे। यह अस्पताल चार लाख वर्गफीट में बना है।