गुस्ताखी माफ -लहर से लेकर लेर तक… चिंता आने की नहीं आएगी कब यह है…

 

 

मालवा-निमाड़ अपनी परंपराओं के लिए मशहूर है। दाल-बाफले से लेकर खारमंजन और उसके बाद पोहे-पापड़ी हों या फिर पेट्रोल-डीजल के भाव। सबके प्रस्तुतिकरण अलग-अलग प्रकार से रहते हैं। इन दिनों शहर में तीसरी लहर को लेकर लोगों में कोई चिंता नहीं है, पर चिंता उसके आने को लेकर है। कुछ लोग यह सोचकर अंदर सेनेटाइजेशन कर रहे हैं कि अपने को कोई दिक्कत नहीं होगी। कुछ बेचारे बाहर से कर-करके परेशान हो रहे हैं। विषय एक ही है भिया लेहर आपके हिसाब से कब तक आएगी। कहीं लहर है, कहीं लेहर है और कहीं भिया लेर है। अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रंग लेहर का देखा जा सकता है। कलाली में बैठे तीन स्वयंभू अरबपति कुछ अदा में थे कि इस बार दूसरी लहर में माल नहीं मिला, ब्लैक में खरीदने से पैजामे से अब चड्ढी में आ गया हूं। लगता है अगली बार चड्ढी पहनकर ही फूल खिलवाना पड़ेगा। दूसरे ने बोला- कामकाज बचा नहीं है, अभी दो महीने से घर में एक रुपया नहीं दिया, बीवी को ऐसी लहर आई कि वह फनफना गई। फुफकार मारती रही, एक घंटा लग गया वापस छबड़ी में बंद करने में… तो दूसरी ओर बाजारों में दुकानों पर बैठे कारोबारी ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं। ग्राहक हैं कि आने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में वे भी अब तीसरी लहर से दो-दो हाथ करने के लिए उधार हो गए हैं। कहना है कि वैसे ही दिवालिया हो चुके हैं, अब बीमारी आ भी गई तो क्या होगा। इधर एक और सज्जन जो अपने घर से ही कार्यालय का काम कर रहे थे, उनका कहना था अब तो झाड़ू लगाने की इतनी प्रैक्टिस हो गई है कि दो-चार घरों में और भी काम कर सकता हूं। कई बार तो हालत यह हो जाती थी कि खुद राम-राम की जगह मरा-मरा बोलने लगता था। अच्छा हुआ, भगवान राम के जमाने में लॉकडाउन नहीं लगा, दूसरा मेनका बाई भी कहीं और व्यस्त थीं। यदि उस जमाने की मंत्री होतीं तो रामचंद्रजी भी जीव-जंतुओं से काम करवाने को लेकर अभी सफाई देते फिरते। रावण को तो बाद में मारते, पहले हिरण के चक्कर में ही राम-राम करना पड़ता। अच्छा अधिकारियों की लहर तो तिरी-भिन्नाट है। इसका उदाहरण बंगाली पुल के चौराहे से लेकर बाणगंगा का पुल है या फिर नगर निगम अधिकारियों की नाला टेपिंग है। हर निर्माण लहर में ही हो रहा है। कई अधिकारियों ने तो लहर ले-लेकर ही इंदौर में जीवन गुजार दिया। 54, 78 में बंगले देख लो तो लहर में ही निपट जाओगे। यानी लहर एक ही है, पर रूप अलग-अलग हैं। इस मामले में कवि केशवदास ने भी कुछ इस प्रकार से एक ही शब्द को लेकर अलग-अलग रूप में उसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार की थी-
चरण धरत चिंता करत, चितवत चारहु ओर।
सुबरन को खोजत फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर।
यहां सुबरन का प्रयोग एक बार किया गया है, किंतु पंक्ति में प्रयुक्त सुबरन शब्द के तीन अर्थ हैं- कवि के संदर्भ में सुबरन का अर्थ अच्छे शब्द, व्यभिचारी के संदर्भ में सुबरन अर्थ सुंदर वर, चोर के संदर्भ में सुबरन का अर्थ सोना है। इसी प्रकार लहर के भी यहां पर अलग-अलग रूप बताए हैं।

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