गुस्ताखी माफ –समझते नई खुदाई मत देखों पर….एक सेल्यूट तो बनता है…तबेला भारी पड़ेगा बंगला पर…

समझते नई खुदाई मत देखों पर….
नेताओं को भी समझना चाहिए सारी खुदाई एक तरफ है तो… कुछ बातें लिखी नहीं समझी जाती है। पहली तरफ ध्यान न भी जाए तो भी दूसरी तरफ ध्यान रखना चाहिए। यह मामला है भाजपा द्वारा मध्यप्रदेश में बनी कार्यसमिति को लेकर। इस कार्यसमिति में राष्ट्र के भाजपा के मुखिया के साथ ही दांव हो गया। जबलपुर सांसद रहीं जयश्री बैनर्जी के पुत्र हैं दीपांकर बैनर्जी, जो रिश्ते से राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के साले होते हैं। प्रदेश कार्यसमिति में कहने के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा ने अपनी ताकत का परिचय दिखाते हुए उनका पत्ता काट दिया तो वहीं एक बड़े नेता की सासू मां आदरणीय कांता रावत मिश्रा का नाम कार्यसमिति में बिना बोले आ गया। अब जब पीर भिश्ती बर्बर मिस्त्री सभी आ रहे थे तो फिर इस नाम को क्यों नहीं लिया। भोपाल तक एक ही चर्चा है इस समय भाजपा में जोरदार दांवबाजी चल रही है। सूत्र कह रहे है अब मौके का इंतजार है। एक दांव ज्योति बाबू के साथ भी होने जा रहा है।
एक सेल्यूट तो बनता है…
शहर अंतत: महामारी के बड़े युद्ध के बाद बाहर आ ही गया। निश्चित रूप से इसके लिए शहर के उन परिवारों ने संघर्ष किया, जो अपने परिजनों को बचाने के लिए आखिरी समय तक अस्पतालों में संघर्षरत रहे, परंतु इस दौरान जिला कलेक्टर मनीष सिंह की भूमिका शहर निश्चित रूप से याद रखेगा, जिन्होंने केवल अपने निर्णय ही लागू किए और राजनीतिक लाभ के लिए नेताओं के निर्णयों को चंद समय के लिए रोककर रखा। वैचारिक मतभेद के बाद भी उनके द्वारा लिए गए निर्णय कई बार हिटलर की तरह लगे, पर वे अपनी जिद के आधार पर निर्णय लेते रहे और आज भयावह स्थिति से निकलकर शहर पूरी तरह सामान्य होने की दिशा में बढ़ने लगा है। कहा जाता है कि प्रशासनिक अधिकारी राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार निर्णय लेते हैं, परंतु पहली बार ऐसा हुआ कि राजनीति को प्रशासन के अनुसार अपने निर्णयों को बदलना पड़ा। महामारी के इस समर को अगले कई बरसों तक शहर याद रखेगा, परंतु उसी के साथ मनीषसिंह को भी याद रखेगा, जिन्होंने शहर को महामारी से निकाला। हालांकि उन्हें मुख्यमंत्री का फ्री-हेंड मिला हुआ था, इसलिए मुख्यमंत्री के साथ मनीषसिंह के लिए इस कालम में सेल्यूट तो बनता है।
तबेला भारी पड़ेगा बंगला पर…
इन दिनों मोती बंगला और मोती तबेला के बीच दीवार खिंचना शुरू हो गई है। युद्ध में राजा-रजवाड़ों का नुकसान कम होता है, परंतु उनके खादिमों को बैठे-बिठाए मोर्चे में कूदना पड़ता है। मामला है संभागायुक्त महोदय का। वे इन दिनों नाराज चल रहे हैं और उन्होंने इसी नाराजगी के चलते पेड़ पर प्रहार नहीं करते हुए टहनियों की छंटाई शुरू कर दी है। वे भी जानते हैं कि बरगद का पेड़ गिराना और हिलाना कठिन होता है। टहनियां तो काटी जा सकती हैं और इसीलिए उन्होंने पिछले दिनों नगर निगम के बजट को लेकर अच्छे-खासे जोर टहनियों को करवा दिए। एक दिन में पारित होने वाला बजट कई दिनों तक पारित होता रहा। अब इसके बाद दूसरे नंबर पर प्राधिकरण का बजट है, जो नेता नगरी में चला गया है। दो पाटन के बीच पिसने का आनंद क्या है, यह तो उन्हीं से पूछा जाए, जो पिस रहे हैं। प्राधिकरण का बजट भी अब शहर भर के नेताओं के हिसाब से फिर से तैयार हो रहा है, यानी यहां पर भी टहनी उलझ रही है। इधर बरगद भी समझ रहे हैं, पर वे अच्छी बारिश का इंतजार कर रहे हैं। वे जानते हैं कि बंगले के मोती कब तबेले में पहुंच जाएंगे, इसके लिए तो समय का इंतजार करना होगा।
-9826667063

 

 

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